Friday, August 19, 2016

पेड नंबर 432

आज फिर नजर पड़ी उस पेड़ पर और शुरू हुई हमारी बाते एक जानी जानी सी पहचानी सी दुनिया | बस हम दोनों की... दोनों सिर्फ एक दुसरे के अनजान राहो में मिले हुए साथी जैसे| एक गुमसुमाहटसी दोनों के स्वभाव में !! यही कारण एक हो रहे थे दोनों !! दिल से !! उस परमात्मा की कृति !! प्रकृति !! बरगत के पेड़ सा बडापन ना सही लेकिन पौधा ना कह सके इतनी लम्बाई चौड़ाई!! अनगिनतसी शाखाए नहीं लेकिन शाखाओंको विश्वास दिलाते हुए खुद को संभालने की कोशिश करता हुआ मेरा एक दोस्त !! बरगत के पेड़ से एक ही तुलना हो सकती थी.... अकेलापन !! मात्र एक निशानी बना हुआ पेड़... ना फुल ना फल ...... नीली कोठी जानेवाली मोड़ !! और उस मोड़ का एकमेव पहरेदार | ना किसीकी भूख मिटाता है, ना किसीको छाव देने लायक है ना किसीकी बारीश से रक्षा कर सकता !! ना कोई दीवानगी की कहानी उसके नीचे लिखी गयी थी !! अपने कर्तव्यों को पूरा करके भी नाकामयाब जिंदगी नसीब होनेवाला मेरा आधार | उसके हरे, पीले, सफ़ेद पत्ते मानो उसकी जर्जरता के गवाह बन चुके थे | जिन्दगी के इस मोड़ पे ना कोई सपना था ना शिकवा |
आज तो वो रास्ता भी बदल गया था जिसपर जिंदगी बसाई थी | सुनसान, निर्मनुष्यता से हैरान उस सड़कपर आज मनुष्य की हैरान करनेवाली भीड़ ने उसके अस्तित्व को मरोड़ दिया था |
पता नहीं आज के दिन सूरज ने कैसे करवट बदल ली थी | सुबह से कुछ जन्नत महसूस होने लगी थी मानो अकेलेपन की नींव को सुरंग सी लगने लगी थी | रोज की ही भीड़ ... इर्द गिर्द | दोस्त की आहट | खुशियोंकी की इस बेनामी लहर का क्या अर्थ होगा | मन ही मन में पेड़ छटपटाया | इतनी ख़ुशी की उसे आदत नहीं थी !! फिर आज क्या हुआ ऐसा ??  सुबह सुबह भीड़ से २-४ लोग आये और उन्होंने ने उसपर मुहर लगा दी पेड़ नंबर 432 | बस तबसे इसकी ख़ुशी फूली ना समायी थी !! किसीने तो इसकी दखल ली थी !! अब इसे कोई तोड़ेगा नहीं | वैसेभी टूटने का डर इसे था ही कहा?? बस खड़े खड़े दिन बित रहे थे ! हर अंकुर में एक चैतन्य दौड़ने लगा !! अपनेपन का अहसास !!  आज न जाने क्यों उसे हर कोई अपनासा लगने लगा था | जिंदगी का मजा महसूस हो रहा था | मानो तबस्सुम के हाथो शहद उगलने लगा था |  हर किसीको बाहें फैलाकर उसकी शाखाएं दावत देने लगी | राह चलते राही को अपने अस्तित्व का अहसास देने लगी |
फिर रात हुयी !! चाँद से खुलकर बात हुयी !! दिनभर कीसीने ना सही रात को उस चाँद ने उसके आनंद की दखल ली। जी भरके उसपर चांदनी की बौछार की । पेड़ का जनम मानो सफल हो गया !! आज के दिन का नशा चढ़ गया !! चाँद के साथ बातें हुई !! चाँदनी के साथ झूमना हुआ !! हवा के साथ उमड़ना हुआ ।
सूरज कि हल्कीसी आहट हुयी । फुलों का सजना सवरना हुआ । रोशनी का अहेसास, हवा का झोकां....  जैसेही सुरज माथेपर आया एक साँस अटक गई । जोर का एक धक्का ..... बस इतनाही काफी था अंदरसे खोंखले हुये जीव के लिये....  जिती जागती जिंदगी मानो थम सी गई । एक दिन का हि तो जिना था । खुलकर जी लिया ।

अन्जानी आवाज !! अजीबसी आहट !! गिडगिडाहट !! मुझेही क्यूँ सुनाई दे रहा है ये सब कूछ ?? क्या रिश्ता था उसका मेरे साथ ?? ना उसकी हवा आती थी मेरे आँगन में ना पत्ते !! ना हरे ना सुखे !
पेड ही तो था वह !! गिर गया या किसीने गिरा दिया । फिर क्यूँ छटपटा रहा है मेरा मन ।
इसीका नाम तो जिंदगी है मेरे दोस्त !!
जो काम का नहीं उसे हटा दो ।
जो उभारना चाहता है उसे गिरा दो ।
एक पल है बस अपने पास !!
जी लो या जला दो....
उभर जाती ये जिंदगी काली रात के बाद........
अगर सुरज मिटा देता साये को अंधेरे के साथ ।।
- विशाखासमीर